“अनवरत समय की चक्की चलती जाती है
मैं जहां खड़ा था कल , उस थल पर आज नहीं ,
कल इसी जगह फिर पाना मुझको मुश्किल है ,
ले मापदंड , जिसको परिवर्तित कर देतीं केवल छूकर ही,
देश-काल की सीमाएँ ,
जग दे मुझ पर फ़ैसला उसे जैसा भाये ;
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में ,
जीवन के इस एक और पहलू से होकर निकल चला ।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला ,
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ ,
जो किया , कहा , माना उसमें क्या बुरा-भला ।”
हरिवंश राय बच्चन
No comments:
Post a Comment