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Tuesday, November 30, 2021

अनवरत समय की चक्की चलती

“अनवरत समय की चक्की चलती जाती है

मैं  जहां खड़ा था कल , उस थल पर आज नहीं ,

कल इसी जगह फिर पाना मुझको मुश्किल है ,

ले मापदंड , जिसको परिवर्तित कर देतीं  केवल छूकर  ही,

 देश-काल की सीमाएँ ,

जग दे मुझ पर फ़ैसला उसे जैसा भाये ;

लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में ,

 जीवन के इस एक और पहलू से होकर निकल चला  ।

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त  मिला , 

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी ये सोच सकूँ ,

जो किया , कहा , माना उसमें क्या बुरा-भला  ।”


हरिवंश राय बच्चन

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