कांत विरहणी, अभागिनी दुखियारी जननी,
देखती रही एक युग राह पुत्र की दिवा-रजनी ।
पति या पुत्र कोई न लौटा, चंद्रभागा ने सह लिया,
कथा मन की, शिला ने धरा को बांध लिया ।
दीर्घ सांस का हर पत्ता झाड़ में सहता गुरु भार,
आज वेदना का हो रहा कण-कण में संचार ।
जिन आंखो में खारे आंसुओं का सागर हो लहराता,
हंसी चुरा कर जिनकी यह शिला-फूल मुस्काता ।
जिनके मन का मेरु अकातर कितना देता ढाल,
चंद्रभागा पर यहां बिछा कितना रेणु का जाल ।
विस्मृत है वे आज तक उपेक्षा में दबे हुए,
कोई भी जानता नहीं, वे धुल में कहीं खो गए ।
राजसी विलास में, किसी शौकनी अजीब से ख़याल में,
नरसिंह नरेश डूबे है, कोणार्क के सवाल में ।
आज नरेश कीर्तिमय कला के बैठे शिखर पर,
कोटि-कोटि आत्मा याहं डूबती सागर अतल में ।
कोणार्क के दर्शन कर बंधु तुम मुग्ध होते रहे,
स्वगत ही ‘धन्य नरसिंह देव’ सदा तुम सदा कहते रहे ।
किंतु मैं देखती बंधु, चंद्रभागा सिकता बेला में,
आज मैं सुन रही ध्वनि कोणार्क की हर शिला में ।
बेशुमार अश्रु आंख से, ह्रदय के तपते उच्छवास,
जिनकी ख़ातिर भरी है शिलापद्म में यह सुवास ।
नरसिंह देव जाते मन के किसी कोण आनूकोण में,
पहले प्रणाम करती शिल्पी, श्रमिक की चरण में ।
इतिहास लिखता नहीं श्रम की, स्वेद की कोई कहानी,
ह्रदय मंदिर में लिखा है नाम, और उनकी करणी |
हर शिला पर आंक गए, वे कला का शतदल,
महाकाल पर अमिट जो, प्रणाम उनके चरणतल ।
Source ~ कोणार्क
लेखिक़ा ~ प्रतिभा राय
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